गर ukhadti सासों की इज़ाज़त हो
तो ये रवायत भी निभा लेंगे हम
तुम्हारे सुर में भरके अपने पल
एक ग़ज़ल साथ साथ गा लेंगे हम
जो चला जायेगा वो साया अपना
खुदा के पास चुकेगा बकाया अपना
रहेंगे हम तो यहीं इस दर-ओ -दीवार तले
इस उम्र में नयी सोहबत कहाँ पालेंगे हम
न मायूस करना हमको अपने अश्कों से
नमक यादों का ऐसे खर्च करते हैं भला
अब न तकलीफ न रंजिश है कोई
अब बची उम्र बा आराम निकालेंगे हम .
गुरुवार, 4 नवंबर 2010
मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010
सोमवार, 20 सितंबर 2010
बुधवार, 11 अगस्त 2010
nightout-1
रुकी हुई सी रात का
अजीब कारोबार है
एक नींद का उधार था
एक नींद का उधार है
सड़क से दौड़ती हुई
बदहवास परछाइयां
ये खिड़की पे अक्स था कोई
या सपनों का गुबार है
न ढल रहा है न उग रहा
सूरज फंसा है कलेजे में
एक रात और सुबह के बीच
थका हुआ सा करार है
अजीब कारोबार है
एक नींद का उधार था
एक नींद का उधार है
सड़क से दौड़ती हुई
बदहवास परछाइयां
ये खिड़की पे अक्स था कोई
या सपनों का गुबार है
न ढल रहा है न उग रहा
सूरज फंसा है कलेजे में
एक रात और सुबह के बीच
थका हुआ सा करार है
hum sabhi sadak hue
हम सभी सड़क हुए
बिछे हुए हैं पत्थरों पे
इंतज़ार में हैं
चलाओगे अपने बुलडोज़र
और जब हमारे चेहरे चिपके हुए ज़मीन पर लाल मिटटी में सने गलने लगेंगे
कब खोद डालोगे हमें हमारे पत्थरों के साथ
चीर कर हमारी माटी का सीना, निकाल कर हमारी हड्डियों से इस्पात
अपनी फैक्ट्री में डाल कर गलाओगे
हम सभी सड़क हुए
बिछे हुए हैं पत्थरों पर
इंतज़ार में हैं
कब हमारे भीतर से
बिछाओगे बारूद की चादरें
कब हमारी फसलें जलेंगी
पुश्तें गलेंगी तुम्हारी ideological भट्टीओं में
तुम गुज़र जाओगे
तुम्हारा भी वक़्त आएगा
और तुम भी गुज़र जाओगे
गुज़रती सर्दियों में
हम सड़क हैं
हम गुज़रा नहीं करते
आदिम हैं हम
मिटटी की ज़ात के
हम बदला नहीं karte
बिछे हुए हैं पत्थरों पे
इंतज़ार में हैं
चलाओगे अपने बुलडोज़र
और जब हमारे चेहरे चिपके हुए ज़मीन पर लाल मिटटी में सने गलने लगेंगे
कब खोद डालोगे हमें हमारे पत्थरों के साथ
चीर कर हमारी माटी का सीना, निकाल कर हमारी हड्डियों से इस्पात
अपनी फैक्ट्री में डाल कर गलाओगे
हम सभी सड़क हुए
बिछे हुए हैं पत्थरों पर
इंतज़ार में हैं
कब हमारे भीतर से
बिछाओगे बारूद की चादरें
कब हमारी फसलें जलेंगी
पुश्तें गलेंगी तुम्हारी ideological भट्टीओं में
तुम गुज़र जाओगे
तुम्हारा भी वक़्त आएगा
और तुम भी गुज़र जाओगे
गुज़रती सर्दियों में
हम सड़क हैं
हम गुज़रा नहीं करते
आदिम हैं हम
मिटटी की ज़ात के
हम बदला नहीं karte
शनिवार, 12 जून 2010
on bhopal ruling
किसी ने ठोका होता ट्रक से
या पुल से दे दिया होता धक्का
तो बढ़ा भी सकते थे
अब इस मामले में तो जितना बनता था दे दिया
दो साल
२५०००,
२५ साल
३ नस्लें सड़ गयी तेरे बुचडखाने में
ज़हर बेचने वालों के दल्लों ने फिर एक बार
थूक डाला है हमारे अधजले चेहरों पर
और खोलो कसाई खाने
बोटी बोटी काट कर हमारी रख दो गिरवी
हमारी सांस जला डालो अपने तेज़ाब से
गलती हो गयी इस बार जो आये दुनिया में
अगली बार इस नरक में जनम न लेंगे हम
या पुल से दे दिया होता धक्का
तो बढ़ा भी सकते थे
अब इस मामले में तो जितना बनता था दे दिया
दो साल
२५०००,
२५ साल
३ नस्लें सड़ गयी तेरे बुचडखाने में
ज़हर बेचने वालों के दल्लों ने फिर एक बार
थूक डाला है हमारे अधजले चेहरों पर
और खोलो कसाई खाने
बोटी बोटी काट कर हमारी रख दो गिरवी
हमारी सांस जला डालो अपने तेज़ाब से
गलती हो गयी इस बार जो आये दुनिया में
अगली बार इस नरक में जनम न लेंगे हम
शुक्रवार, 28 मई 2010
for mom
टुकड़ों में याद रखता हूँ चेहरा तेरा
किफ़ायत से खर्च करता हूँ वो सारे पल
इतनी ही है जो भी जमा पूँजी है
इतने बरसों जो जिए जाना है
मिलेंगे फिर कभी तो बैठकर सिखाना मुझे
कि कैसे काटी थी जिंदगी तुमने टुकड़ों में
किफ़ायत से खर्च करता हूँ वो सारे पल
इतनी ही है जो भी जमा पूँजी है
इतने बरसों जो जिए जाना है
मिलेंगे फिर कभी तो बैठकर सिखाना मुझे
कि कैसे काटी थी जिंदगी तुमने टुकड़ों में
रविवार, 23 मई 2010
Ashish bhai ko samarpit
( Ashish Mandloi was a senior activist with Narmada Bachao Andolan and had been the face of movement in Nimad and other places facing acute submergence and loss of livelihood due to the project. I had the pleasure of working with him during 2004-2007.he passed away last friday )
उठती नहीं आवाज़ कोई
डर की सिसकारी भी नहीं
रुक रुक के गिर जाती है हरसू
सांस भारी भी नहीं
एक लय सी सुबह उठ गयी
एक भैरवी सी बह चली
जब तुम चले बातें चली
सुबहें चली रातें चली
मनिबेली के कसबे चले
बडवानी की राहें चली
दिल्ली चले हर ओर से
टूटे दिलों के पोर से
उठा के कोई न फ़ेंक दे
लाठी वकील के जोर से..
तुम लड़ चले
उन हजारों बेघरों के वास्ते
तुम लड़ चले
खोले जहाँ बरसो थके थे रास्ते
तुम लड़ चले
जब हर हार से जीत का रास्ता खुला
तुम जल चले
जब भी अँधेरा रात से गहरा हुआ
संघर्ष जी कर तुम चले
संघर्ष न होगा ख़तम
आशीष मंडलोई आगे बढ़ो
लड़ेंगे हम जीतेंगे हम
उठती नहीं आवाज़ कोई
डर की सिसकारी भी नहीं
रुक रुक के गिर जाती है हरसू
सांस भारी भी नहीं
एक लय सी सुबह उठ गयी
एक भैरवी सी बह चली
जब तुम चले बातें चली
सुबहें चली रातें चली
मनिबेली के कसबे चले
बडवानी की राहें चली
दिल्ली चले हर ओर से
टूटे दिलों के पोर से
उठा के कोई न फ़ेंक दे
लाठी वकील के जोर से..
तुम लड़ चले
उन हजारों बेघरों के वास्ते
तुम लड़ चले
खोले जहाँ बरसो थके थे रास्ते
तुम लड़ चले
जब हर हार से जीत का रास्ता खुला
तुम जल चले
जब भी अँधेरा रात से गहरा हुआ
संघर्ष जी कर तुम चले
संघर्ष न होगा ख़तम
आशीष मंडलोई आगे बढ़ो
लड़ेंगे हम जीतेंगे हम
शुक्रवार, 7 मई 2010
ab mujhe koi intzaar kahan (misra gulzaar sahab ki izazat se)
ढल के छूट गया जब तुम्हारे साए से
रेत ही रेत हूँ मैं
मुन्तजिर एक आंधी का
तुम्हारे पैरों के निशान बचा के रक्खे हैं
बहारें भी तो यहाँ आँधियों सी चलती है
न जाने किस बहार में उखड चलूँ अगले दर तक
पिरो के आदतें पहन ली जिन्दगी गले में
फिरा के इनको जपता रहूँगा नाम तेरा
वो जो बहते थे आबशार कहाँ
अब मुझे कोई इंतज़ार कहाँ
रेत ही रेत हूँ मैं
मुन्तजिर एक आंधी का
तुम्हारे पैरों के निशान बचा के रक्खे हैं
बहारें भी तो यहाँ आँधियों सी चलती है
न जाने किस बहार में उखड चलूँ अगले दर तक
पिरो के आदतें पहन ली जिन्दगी गले में
फिरा के इनको जपता रहूँगा नाम तेरा
वो जो बहते थे आबशार कहाँ
अब मुझे कोई इंतज़ार कहाँ
गारत पड़े इस बेमुर्रवत से दिन को
गुज़र गया जैसे कि कभी आया ही न हो
खिंची पड़ी है ये रात लकीर जैसी हम दोनों के बीच
गुज़रे कोई इस लकीर से तो गुज़र जाए ये रात भी
कभू आया नहीं ख्याल के जगे रह गए थे हम
उम्रें बसर हो गयी इस न ढलती सी रात में
गुज़र गया जैसे कभी आया ही न हो
उस पार लेटा है लकीर के जो
बारहा अपना साया ही न हो
गुज़र गया जैसे कि कभी आया ही न हो
खिंची पड़ी है ये रात लकीर जैसी हम दोनों के बीच
गुज़रे कोई इस लकीर से तो गुज़र जाए ये रात भी
कभू आया नहीं ख्याल के जगे रह गए थे हम
उम्रें बसर हो गयी इस न ढलती सी रात में
गुज़र गया जैसे कभी आया ही न हो
उस पार लेटा है लकीर के जो
बारहा अपना साया ही न हो
बुधवार, 5 मई 2010
mandir ke saamne
पिछले दस साल में
ख़त्म हो गए सारे लोग
धीरे धीरे धुआं पीते
किश्तों में जीते
बोलो गोविन्द
गोविन्द देता है कैंसर
दर्द के हलाहल की wholesale agency का ठेकेदार
तय किया था हमने
हम एक दूसरे के रास्ते नहीं आयेगे
मगर हलाहल के ऊपर के wrapper का आकर्षण
और उसकी न जाने वाली लत
सबको राखे गोविन्द
वोही पिलावे वोही जिलावे
अजीब गैरजिम्मेदार सिस्टम है यार तुम्हारा..
और मेरी मजबूरी है हर दिन
तुम्हारी ड्योढ़ी पे सलाम ठोक कर गुज़ारना
क्या हिसाब बैठाये हम अपने बीच
तुम भी जिओ हम भी जियें
बोलो गोविन्द
ख़त्म हो गए सारे लोग
धीरे धीरे धुआं पीते
किश्तों में जीते
बोलो गोविन्द
गोविन्द देता है कैंसर
दर्द के हलाहल की wholesale agency का ठेकेदार
तय किया था हमने
हम एक दूसरे के रास्ते नहीं आयेगे
मगर हलाहल के ऊपर के wrapper का आकर्षण
और उसकी न जाने वाली लत
सबको राखे गोविन्द
वोही पिलावे वोही जिलावे
अजीब गैरजिम्मेदार सिस्टम है यार तुम्हारा..
और मेरी मजबूरी है हर दिन
तुम्हारी ड्योढ़ी पे सलाम ठोक कर गुज़ारना
क्या हिसाब बैठाये हम अपने बीच
तुम भी जिओ हम भी जियें
बोलो गोविन्द
बुधवार, 28 अप्रैल 2010
yayavar
फिर बावरे
फिर फिर फिरे
किसकी मडैया ठौर काटेगा रे साले बावरे
उठ गर्द है
उड़ जा कहीं
दुनिया किसी के बाप की जागीर तो ठहरी नहीं
दर दर भटक
घर घर फटक
दरिया बना के भेजा है , बरसात है बह चल कहीं
मस्ती का पुर्जा जिस्म है
दुनिया है टुकड़ा रूह का
चलता फिरे जलता फिरे तकदीर तेरी बस यही
गाता रहा कर बावरे
सोया हुआ ये गाँव है
लगता है मन मेरा के तू आता रहा कर बावरे
---------आनंद झा २०१०--------------------------
फिर फिर फिरे
किसकी मडैया ठौर काटेगा रे साले बावरे
उठ गर्द है
उड़ जा कहीं
दुनिया किसी के बाप की जागीर तो ठहरी नहीं
दर दर भटक
घर घर फटक
दरिया बना के भेजा है , बरसात है बह चल कहीं
मस्ती का पुर्जा जिस्म है
दुनिया है टुकड़ा रूह का
चलता फिरे जलता फिरे तकदीर तेरी बस यही
गाता रहा कर बावरे
सोया हुआ ये गाँव है
लगता है मन मेरा के तू आता रहा कर बावरे
---------आनंद झा २०१०--------------------------
untitled
इंतज़ार दबे पांव लौट आया है
बेसबर रात उठ उठ के लौट आती है
अब के जाओ तो बताकर जाना
फ़िक्र से नींद नहीं आती है
बरसते हैं रात भर ज़मीं पे टूटते सैयारे
राख सपनों के पेट में छुपकर
दहकते रहते हैं कुछ बददिमाग अंगारे
थपकियाँ दे के सुलाकर जाना
अब के जाओ तो बताकर जाना
------------आनंद झा २०१०------------
बेसबर रात उठ उठ के लौट आती है
अब के जाओ तो बताकर जाना
फ़िक्र से नींद नहीं आती है
बरसते हैं रात भर ज़मीं पे टूटते सैयारे
राख सपनों के पेट में छुपकर
दहकते रहते हैं कुछ बददिमाग अंगारे
थपकियाँ दे के सुलाकर जाना
अब के जाओ तो बताकर जाना
------------आनंद झा २०१०------------
शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010
on nba's victory over maheswar dam
हर आवाज़ की नोक में हमने
ज़हर लगा कर रक्खा है
जाने किस कागज़ में तुमने
सुबह दबा कर रक्खा है
सरकार बने फिरते हो तुम
हमारे घर के जंगल के
उखाड़ के हमको मिटटी से
concrete में रोपते रहते हो
तुम होते कौन हो #########
किस्मत जो हमारी लिखते हो
दिल्ली में अपनी कुर्सी पे
जाने कितने हाथों बिकते हो
देखेगे तुम्हारा ताब ओ ज़हर
हम देखेंगे दुनिया देखेगी
रुक जाओ कुछ ही बरसों में
गद्दी से उठाकर फेंकेगी
ज़हर लगा कर रक्खा है
जाने किस कागज़ में तुमने
सुबह दबा कर रक्खा है
सरकार बने फिरते हो तुम
हमारे घर के जंगल के
उखाड़ के हमको मिटटी से
concrete में रोपते रहते हो
तुम होते कौन हो #########
किस्मत जो हमारी लिखते हो
दिल्ली में अपनी कुर्सी पे
जाने कितने हाथों बिकते हो
देखेगे तुम्हारा ताब ओ ज़हर
हम देखेंगे दुनिया देखेगी
रुक जाओ कुछ ही बरसों में
गद्दी से उठाकर फेंकेगी
ghar se bhage hue bacche-2 (alok dhanwa ke naam)
कबाडखाना शहर
छोड़ शहर भाग आया
जंग लगे कबाड़ फेफड़ों में फूंकता हूँ दम
खड खड़ा ती हैं सासें
सम्हलती रूकती हैं
एक नयी आदत लगी है जीने की
रंग दिखते हैं
आवाज़ के पर दिखते हैं
चेहरे छील के पहचाने हुए घर दिखते हैं
अब नहीं उठते हैं चौंककर डरकर
सपने पुरसुकून बहते हैं मेरी नींदों में.
आनंद झा 2010
छोड़ शहर भाग आया
जंग लगे कबाड़ फेफड़ों में फूंकता हूँ दम
खड खड़ा ती हैं सासें
सम्हलती रूकती हैं
एक नयी आदत लगी है जीने की
रंग दिखते हैं
आवाज़ के पर दिखते हैं
चेहरे छील के पहचाने हुए घर दिखते हैं
अब नहीं उठते हैं चौंककर डरकर
सपने पुरसुकून बहते हैं मेरी नींदों में.
आनंद झा 2010
ghar se bhage hue bacche-1 (alok dhanwa ke naam)
टकरा कर लौट आती हैं उनकी रूहें
एक बेचैन समंदर जैसे पल दो पल
फेंकता रहता है सैलाब किनारे की तरफ
अपनी आवाज़ शहर में
मुहाफ़िज़ की तरह सुनकर
अपनी आखों में भर के concrete के मोतियाबिंद
बड़े होने की तैयारी में
जुट जाते हैं बच्चे
घर से भागे हुए बच्चे
डर कर उठ जाते हैं
कच्ची नींद में जागे हुए बच्चे
एक बेचैन समंदर जैसे पल दो पल
फेंकता रहता है सैलाब किनारे की तरफ
अपनी आवाज़ शहर में
मुहाफ़िज़ की तरह सुनकर
अपनी आखों में भर के concrete के मोतियाबिंद
बड़े होने की तैयारी में
जुट जाते हैं बच्चे
घर से भागे हुए बच्चे
डर कर उठ जाते हैं
कच्ची नींद में जागे हुए बच्चे
बुधवार, 31 मार्च 2010
mushkil
मान लेते हैं अ के सानी ४
मान लेते हैं बी के सानी ६
जोड़ दो अलफ़ाज़ तो क्या बनता है
जनाब १० का आकडा बनता है
अलफ़ाज़ जोड़ते हैं आकडे बन जाते हैं
आजकल बहुत से ####
कलम की taxi चलाते हैं
मान लो मानी में क्या जाता है
गोया न भी मानो तो दुनिया मानेगी
आकड़ों की शैदाई है दुनिया
दिल की सियाही बेकार खाली जाएगी
सोच रहा हूँ के बेच डालूँ ये कलम
जला कर बहा दूं दरिया में ये सारे सुखन
घोट डालूँ गला इस दिल की समझदारी का
हो जाऊं शामिल फिर गधों की बस्ती में
बस एक और सामना इस भीड़ के साथ
अबकी हारा जो ये जंग तो मर जाऊंगा .
मान लेते हैं बी के सानी ६
जोड़ दो अलफ़ाज़ तो क्या बनता है
जनाब १० का आकडा बनता है
अलफ़ाज़ जोड़ते हैं आकडे बन जाते हैं
आजकल बहुत से ####
कलम की taxi चलाते हैं
मान लो मानी में क्या जाता है
गोया न भी मानो तो दुनिया मानेगी
आकड़ों की शैदाई है दुनिया
दिल की सियाही बेकार खाली जाएगी
सोच रहा हूँ के बेच डालूँ ये कलम
जला कर बहा दूं दरिया में ये सारे सुखन
घोट डालूँ गला इस दिल की समझदारी का
हो जाऊं शामिल फिर गधों की बस्ती में
बस एक और सामना इस भीड़ के साथ
अबकी हारा जो ये जंग तो मर जाऊंगा .
epitaph
कटी कलाई
बहा समुन्दर
किधर का किस्सा
किधर चलेगा
लाद चला था
सारी दुनिया
रिश्ते नाते
और सन्नाटे
जहाँ चलाये उसका मौला
उधर चला था
उधर चलेगा
सब कुछ देखा
फिर कुछ जाना
की मुहब्बत किया बहाना
निचोड़ी रातों से नींद सारी
गुज़र गया एक और ज़माना
न पूछो उससे खुदा के बन्दे
हुआ है बरसों से वो दीवाना
आनी जानी दुनिया सारी
लगा रहेगा आना जाना
सफ़र तो बस दिल का तय था
उधर से ही रास्ता खुलेगा
अगले मोड़ कब्र है उसकी
उधर ठिकाना वही मिलेगा
----------२०१०--आनंद झा ------
बहा समुन्दर
किधर का किस्सा
किधर चलेगा
लाद चला था
सारी दुनिया
रिश्ते नाते
और सन्नाटे
जहाँ चलाये उसका मौला
उधर चला था
उधर चलेगा
सब कुछ देखा
फिर कुछ जाना
की मुहब्बत किया बहाना
निचोड़ी रातों से नींद सारी
गुज़र गया एक और ज़माना
न पूछो उससे खुदा के बन्दे
हुआ है बरसों से वो दीवाना
आनी जानी दुनिया सारी
लगा रहेगा आना जाना
सफ़र तो बस दिल का तय था
उधर से ही रास्ता खुलेगा
अगले मोड़ कब्र है उसकी
उधर ठिकाना वही मिलेगा
----------२०१०--आनंद झा ------
सोमवार, 22 मार्च 2010
faiz ahmed faiz ke naam
बेतकल्लुफी का हुनर तुमसे सीखे
कोई पूछे किधर की हांकोगे इस बार
किस दरीचे किस कूचे जा बैठोगे
किसकी आखों से झांकोगे इस बार
किसका हाथ थाम ऐलाने जंग छेड़ोगे
किस का तख़्त ओ ताज उछालोगे इस बार
तुम्हारी आवाज़ तरकश ऐ इंकलाबी है
किस सितमगर का ज़ोर निकालोगे इस बार
न पैदा हुआ था मैं जब तुम खुदागंज चले
एक दौर ने आफ्सान' तुम पे वारे हैं
ज़ज्बा देते हैं लिखने का और लड़ने का
ये जो सारे सुखन' तुम्हारे हैं
कोई पूछे किधर की हांकोगे इस बार
किस दरीचे किस कूचे जा बैठोगे
किसकी आखों से झांकोगे इस बार
किसका हाथ थाम ऐलाने जंग छेड़ोगे
किस का तख़्त ओ ताज उछालोगे इस बार
तुम्हारी आवाज़ तरकश ऐ इंकलाबी है
किस सितमगर का ज़ोर निकालोगे इस बार
न पैदा हुआ था मैं जब तुम खुदागंज चले
एक दौर ने आफ्सान' तुम पे वारे हैं
ज़ज्बा देते हैं लिखने का और लड़ने का
ये जो सारे सुखन' तुम्हारे हैं
paani -1
भरा समंदर
गोपीचंदर
बोल मेरी मछली कितना पानी
गल गल के आखों से बह गया
डूब के देखा इतना पानी
उबाला सूरज
धोये किस्से
रात सी काली
दिन की कहानी
चले किधर अब
किधर मिलेगा
हँसता दरिया
गाता पानी
गोपीचंदर
बोल मेरी मछली कितना पानी
गल गल के आखों से बह गया
डूब के देखा इतना पानी
उबाला सूरज
धोये किस्से
रात सी काली
दिन की कहानी
चले किधर अब
किधर मिलेगा
हँसता दरिया
गाता पानी
मंगलवार, 9 मार्च 2010
aawara muhabbaton ke naam-2
न तमन्ना-ओ-सुर सजाओ
न कोई जवाब दो
मुझे रात भर सुलाओ
मुझे एक ख्वाब दो
मुझे बोल दो के माजी
मेरा इंतज़ार है
मुझे एक रात रोको
मुझे माहताब दो
न सुकून रहा
न ज़मीन रही
कि ख्याल है या खुमार है
मुझे हर गली सजाओ मुझे हर बहाव दो
--------------आनंद झा---२००३---
न कोई जवाब दो
मुझे रात भर सुलाओ
मुझे एक ख्वाब दो
मुझे बोल दो के माजी
मेरा इंतज़ार है
मुझे एक रात रोको
मुझे माहताब दो
न सुकून रहा
न ज़मीन रही
कि ख्याल है या खुमार है
मुझे हर गली सजाओ मुझे हर बहाव दो
--------------आनंद झा---२००३---
aawara muhabbaton ke naam
रुक कर फिसलती बात पर
एक शाम का ईमान है
हथेली पे रक्खी लकीरों पे
तेरी उँगलियों के निशान है
क्या वफ़ा क्या उसके उसूल हैं
न सुना न पढ़ा मैंने कभी
पढता हूँ तेरी याद मैं
तू ही मेरी अजान है
बढ़ता हूँ हिस्सा जो तोड़कर
उससे जुड़ा सा रह गया
सीने से निकला था उस घडी
उड़ता धुआं सा रह गया
----आनंद झा----२००९---
एक शाम का ईमान है
हथेली पे रक्खी लकीरों पे
तेरी उँगलियों के निशान है
क्या वफ़ा क्या उसके उसूल हैं
न सुना न पढ़ा मैंने कभी
पढता हूँ तेरी याद मैं
तू ही मेरी अजान है
बढ़ता हूँ हिस्सा जो तोड़कर
उससे जुड़ा सा रह गया
सीने से निकला था उस घडी
उड़ता धुआं सा रह गया
----आनंद झा----२००९---
bol jamoore
खोज उसे
जो चुप बैठा है बीच तुम्हारे
जो उगता उगता गल जाता है साँझ सकारे
चल ढूंढ अठन्नी आँख की कन्नी
कूल किनारे ढूंढ
बूझ पहाडा अट्ठारह का
खोज बहारें ढूंढ
खोज उसे
कर गीली गीली पाशा
खोज मदीना ढूंढ
भरी दुपहरी सी दुनिया में
एक दिन जीना ढूंढ
आँख मिली देखा क्या तुमने
ख्वाब रहा न ख्वाब
दुनिया बनी बना ये झंझट
क्या सच क्या है ख्वाब
चलती रहे ये गाड़ी तेरी
ख्वाब कमीना ढूंढ
खोज उसे
---------आनंद झा---२००४-----
जो चुप बैठा है बीच तुम्हारे
जो उगता उगता गल जाता है साँझ सकारे
चल ढूंढ अठन्नी आँख की कन्नी
कूल किनारे ढूंढ
बूझ पहाडा अट्ठारह का
खोज बहारें ढूंढ
खोज उसे
कर गीली गीली पाशा
खोज मदीना ढूंढ
भरी दुपहरी सी दुनिया में
एक दिन जीना ढूंढ
आँख मिली देखा क्या तुमने
ख्वाब रहा न ख्वाब
दुनिया बनी बना ये झंझट
क्या सच क्या है ख्वाब
चलती रहे ये गाड़ी तेरी
ख्वाब कमीना ढूंढ
खोज उसे
---------आनंद झा---२००४-----
ahmakana sa kuch
मुझे क्या
मैं तोह रहगुज़र का हूँ
मुझे क्या
मैं तो बे उम्र सा हूँ
मुझे क्या
मैं तो ठहर जाऊं भी
ओढ़ कर एक कफ़न मर जाऊं भी
मुझे क्या, मैं तो सोता हूँ सूरज के साथ
होती है रात तो रोता हूँ सूरज के साथ
मुझे क्या मैं तो रहगुज़र का हूँ
मुझे क्या मैं तो बे उम्र सा हूँ
---------आनंद झा----२००५-----
मैं तोह रहगुज़र का हूँ
मुझे क्या
मैं तो बे उम्र सा हूँ
मुझे क्या
मैं तो ठहर जाऊं भी
ओढ़ कर एक कफ़न मर जाऊं भी
मुझे क्या, मैं तो सोता हूँ सूरज के साथ
होती है रात तो रोता हूँ सूरज के साथ
मुझे क्या मैं तो रहगुज़र का हूँ
मुझे क्या मैं तो बे उम्र सा हूँ
---------आनंद झा----२००५-----
labzishein
तुम्हारी मर्ज़ी है बात चुन लो
एक शाम कि मुलाकात चुन लो
खबर वोही है जो टूटती है
और तहों पर बैठती है
जो धूल उडती है खिडकियों पर
वही दुहरायी सी रात चुन लो
सवाल है सब सवाल क्या हैं
क्यों है जो कुछ भी दरमियाँ है
पता है तुमको मुझे पता है
कोई अटपटा जवाब चुन लो
बेमतलब के मायने हैं
जहाँ ही सारा बस यूँ बना है
देखो घूमो दौड़ लगा कर
एक ठहरी सी कायानत चुन लो
मन है खुदा खुद उसी से पूछो
उसे पता है तुम्हे नहीं है
जो है जेहन में तुम्हारा हिस्सा
वो सब यहाँ पर है, यहीं है
करो तिजारत , नमाज़ चुन लो
तुम्हारी मर्ज़ी है बात चुन लो
---------आनंद झा २००९------------
एक शाम कि मुलाकात चुन लो
खबर वोही है जो टूटती है
और तहों पर बैठती है
जो धूल उडती है खिडकियों पर
वही दुहरायी सी रात चुन लो
सवाल है सब सवाल क्या हैं
क्यों है जो कुछ भी दरमियाँ है
पता है तुमको मुझे पता है
कोई अटपटा जवाब चुन लो
बेमतलब के मायने हैं
जहाँ ही सारा बस यूँ बना है
देखो घूमो दौड़ लगा कर
एक ठहरी सी कायानत चुन लो
मन है खुदा खुद उसी से पूछो
उसे पता है तुम्हे नहीं है
जो है जेहन में तुम्हारा हिस्सा
वो सब यहाँ पर है, यहीं है
करो तिजारत , नमाज़ चुन लो
तुम्हारी मर्ज़ी है बात चुन लो
---------आनंद झा २००९------------
शुक्रवार, 5 मार्च 2010
girgit
कि जब मिले हैं सड़कों पर
मेरे चेहरे में बीते हुए कल के टुकड़े
मैं सोचता हूँ अजनबी हो जायेगा
आते हुए कल में मेरा चेहरा
हम अपने अन्दर कितने लोग रखते हैं
अपनी variable सी history के बुकमार्क
रास्ते बदलते हैं हम बदलते हैं
फिर उन्ही रास्तों पर चलते हैं
कुछ न कहना भी एक वादा है
कि जब मिलो खुद से तो बे गिला मिलना
जब भी आये कभी दिल खुद पे
तो वजह बेवजह बेपनाह मिलना
अपने आगे है , अपने पीछे है
बाँध रक्खा है तिलस्म दुनिया का
जिंदगी तुमको खुद पता भी नहीं
तुमने क्या क्या रंग बदले हैं
----------आनंद झा २००८-----------
मेरे चेहरे में बीते हुए कल के टुकड़े
मैं सोचता हूँ अजनबी हो जायेगा
आते हुए कल में मेरा चेहरा
हम अपने अन्दर कितने लोग रखते हैं
अपनी variable सी history के बुकमार्क
रास्ते बदलते हैं हम बदलते हैं
फिर उन्ही रास्तों पर चलते हैं
कुछ न कहना भी एक वादा है
कि जब मिलो खुद से तो बे गिला मिलना
जब भी आये कभी दिल खुद पे
तो वजह बेवजह बेपनाह मिलना
अपने आगे है , अपने पीछे है
बाँध रक्खा है तिलस्म दुनिया का
जिंदगी तुमको खुद पता भी नहीं
तुमने क्या क्या रंग बदले हैं
----------आनंद झा २००८-----------
yaadein
उछाला है दूर तक
यादों का गठ्हर
पत्थर ही हो गया था
लुढ़क जायेगा कहीं
अब कोई क्या करे
लेकर कहाँ फिरे
यादों के साथ क्या कहीं
जीते हैं जिंदगी
अपनी कहानी तापकर
काटी हैं सर्दियाँ
रोटी के साथ खायी हैं
यादों की चाशनी
-------------आनंद झा २००९---------
यादों का गठ्हर
पत्थर ही हो गया था
लुढ़क जायेगा कहीं
अब कोई क्या करे
लेकर कहाँ फिरे
यादों के साथ क्या कहीं
जीते हैं जिंदगी
अपनी कहानी तापकर
काटी हैं सर्दियाँ
रोटी के साथ खायी हैं
यादों की चाशनी
-------------आनंद झा २००९---------
bakaaya
मुझपर गुज़र हुई पिछली रातें
धूल की तरह जमी पिछली रातें
रजिस्टर में दर्ज कर दी हैं
कोरे कागज़ पे अनकही पिछली रातें
जो गुज़ारा है या जो गुज़रा है
जो उतारा है या जो उतरा है
खोल कर रख दिया है छतरी सा
कल भीग कर जो भी बिखरा है
मुझे यकी है मैं समेट लूँगा ये
डाल संदूक में उठाकर सर पे
निकल जाऊंगा कहीं ये सभी
मुझपर गुज़र हुई हैं जो पिछली रातें
----------------------आनंद झा २००४---------------
धूल की तरह जमी पिछली रातें
रजिस्टर में दर्ज कर दी हैं
कोरे कागज़ पे अनकही पिछली रातें
जो गुज़ारा है या जो गुज़रा है
जो उतारा है या जो उतरा है
खोल कर रख दिया है छतरी सा
कल भीग कर जो भी बिखरा है
मुझे यकी है मैं समेट लूँगा ये
डाल संदूक में उठाकर सर पे
निकल जाऊंगा कहीं ये सभी
मुझपर गुज़र हुई हैं जो पिछली रातें
----------------------आनंद झा २००४---------------
muntzir
आँचल सा फ़ैल जाता है घर
इंतज़ार में
आयेंगे वो के उनका करम है
बहार में
हर शह में एक लम्हा है
सिलवट में रात है
आता नहीं करार
दिल ऐ बेकरार में
जायेंगे वो सनद है
कुछ ही दिनों के बाद
आता है जैसे दम
और दिन उड़ते गुबार में
चौखट को हमारे भी
हो जायेगा यकीं
दिन इसने भी गिन रखे हैं
इसी ऐतबार में
इंतज़ार में
आयेंगे वो के उनका करम है
बहार में
हर शह में एक लम्हा है
सिलवट में रात है
आता नहीं करार
दिल ऐ बेकरार में
जायेंगे वो सनद है
कुछ ही दिनों के बाद
आता है जैसे दम
और दिन उड़ते गुबार में
चौखट को हमारे भी
हो जायेगा यकीं
दिन इसने भी गिन रखे हैं
इसी ऐतबार में
mukammil
बह के देखा
अपने साथ देखो
कहाँ कहाँ की मिटटी समेट कर लाया
एक दिन कूचे में नज़र बैठी
अपनी ही कहानी खरीद कर लाया
धूप में अपनी छाव में बैठा
ठंढ और गर्म की पहुच से बाहर
मैं कल ही अपने घर आया
हरा दिया मुझको मेरी ज़रूरतों ने
वाहियात मतलबों का सच पाया
---------आनंद झा -----2007
अपने साथ देखो
कहाँ कहाँ की मिटटी समेट कर लाया
एक दिन कूचे में नज़र बैठी
अपनी ही कहानी खरीद कर लाया
धूप में अपनी छाव में बैठा
ठंढ और गर्म की पहुच से बाहर
मैं कल ही अपने घर आया
हरा दिया मुझको मेरी ज़रूरतों ने
वाहियात मतलबों का सच पाया
---------आनंद झा -----2007
गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010
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