शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

तेरे शहर की हवाओं से ये दरयाफ्त करता हूँ
वोही जो दूर किसी गुमनाम वतन से
समुन्दर के ऊपर बहती हुई
उड़ाती रहती है मेरे छत पे सूखते हुए कपडे

मैं भी किसी गुमनाम वतन का बाशिंदा हूँ
किस कदर आया इस शहर में मुझे मालूम नहीं
नहीं लगता है मुझको अपना यहाँ कुछ भी
कैसे जाते हैं वापस लौट के खुद के घर को

अजनबी होता हूँ हर उस घर में
जिसे अपना घर बुलाया करता था
समंदर हैं या पहाड़ हैं मेरे
या खेत हैं लहलहाते मीलों फैले
या पतली संकरी गलियां है तंग रस्ते हैं
या शीशे के मीनार जिसमें फिलहाल आजकल मैं रहता हूँ

हवाओं से पूछता हूँ हर रोज़ छत पे मैं
कैसे खानाबदोश हो के जीते हैं 

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

शायद उठ कर कहीं गया होगा 
महफिलों में रास्ता नहीं होगा 
आखिरी जंगलों के पार कहीं 
कोई इंसान सा इंसान होगा 

कोई कहता है 
रुक जाओ एक पहर के लिए 
एक बेहतर सेहर का 
उसे भी कोई गुमान होगा 

चादरों में समेट कर रातें 
सोकर उठे सुबह तो मंज़र नया मिला
कोई फिर से चाबी घुमा कर
दुनिया बदल गया होगा 

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

Nostalgia -2

समय चुकता नहीं है 
हम डर जाते हैं 
बहा देते हैं वो समय 
नालियों में 
और फिर किसी गली मुड़कर 
मुश्किल से ढूंढते हैं 
कहीं किसी नाली में 
जम तो न गया होगा 

यूँ बेकार होता रहता है आदमी हर दिन 

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

थकन के सुखन हैं ये साहिब 
लोरी की मानिंद कहे जाते हैं 
पहले जगते थे मुल्कवाले इनसे 
आजकल बच्चे सुलाए जाते हैं